*आजादी के 75 वर्षों बाद भी बुनियादी सुविधाओं यथा सडक तक से बंचित है पिथौरागढ़ का “पैराड़ं” गांव
(गिरीश पन्त)
देहरादून। पर्वत श्रृंखलाएं शुरू से ही मुझे अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। मेरी शिक्षा- दीक्षा भले ही लखनऊ में हुई हो लेकिन मुझे पहाड़ से आज भी बेहद लगाव है। यही लगाव मुझे मेरी कर्मस्थली के रूप में मुझे यंहा खींच लाया। जब भी मौका मिलता है मैं पहाड़ों की ओर जाना नही भूलता। मैं लगभग चार दशक पहले की बात कर रहा हूं जब गांव आबाद हुआ करते थे। नाते रिश्तेदारों से मिलकर मन प्रफुल्लित हो उठता था। पहाड़ों की बोझिल जिंदगी को लोग हंसकर व्यतीत करते थे। वक्त बीतता गया, पहाड़ से युवाओं का पलायन होने लगा।
भौतिक सुख सुविधाओं की होड़ तथा रोजगार की तलाश में भटकते युवा लगातार पलायन कर रहे हैं। आज स्थिति यह है कि गांव के गांव वीरान हो गए हैं। जो बचे- खुचे घर भी हैं उनमें ताले लटके हैं। खेती- बाड़ी बंजर पड़ी हैं । जिन गांवों में बुजुर्ग हैं वे भी अपने अंतिम पड़ाव के इंतजार में हैं।
पृथक राज्य बनने के बाद पहाड़ के लोगों के जीवन में क्या बदलाव आया है। इस जमीनी हकीकत से पहाड़वासी भलीभांति वाकिफ हैं। कहीं नदियां बिक गयी हैं तो कहीं पहाड व कहीं खदान। गांव चाहे कुमाऊं के हों या गढ़वाल के, यह सच पूरे दर्द के साथ हमारे सामने है। पहाड़ की अर्थव्यवस्था, खेती से लेकर जंगल का सारा काम महिलाओं पर टिका है। महिलाएं आज भी पानी,ईंधन और पशुओं के चारे के लिए जंगलों में भटकने को मजबूर हैं। वही पुरुष रोजगार की तलाश में या तो गांव से पलायन कर चुके हैं या वे किसी पेड़ के नीचे, चाय की दुकान पर, घर आंगन में ताश खेलते हुए और गप्पे हांकते मिल जायेंगे। आज में एक ऐसे ही गांव “पैराड़”(पथराड़ी टोक) का दर्द बयां कर रहा हूं। उक्त गांव जनपद पिथौरागढ के बेरीनाग स्थित भटीगांव में है। चूंकि यह मेरा पैतृक गांव है लिहाजा उस गांव से मेरा लगाव भी स्वाभाविक है। वैसे तो उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों की लगभग एक सी व्यथा है।
भटीगांव स्थित पैराड़ गांव में आजादी के इतने वर्षों बाद भी सड़क न होने से गांव की स्थिति बेहद गंभीर है।
सरकारी दस्तावेजों में पैराड़ गांव को पथराड़ी टोक के नाम से दर्ज किया गया है। यहां की अस्सी फीसदी आबादी इसलिए पलायन कर गई क्योंकि यहां न तो रोजगार है और न ही सड़क। सड़क न होने से बीमार लोगों को अस्पताल ले जाना मुश्किल ही नही मामुकिन है। कुछ दशक पूर्व इस गांव की अच्छी- खासी आबादी थी जो अब नगण्य है। हालात यह हैं कि गांव में युवा नहीं हैं। यहां सिर्फ बचे- खुचे बुजुर्ग ही है। जो अब अपने बच्चों के साथ पलायन को मजबूर हैं। पैराड़ निवासी चौरासी वर्षिय नित्यानन्द पन्त व उनके भाई किशन पन्त का कहना है कि वोट मांगने वाले नेता सड़क बनाने का वायदा तो करते है लेकिन चुनाव जीतने के बाद नदारद हो जाते हैं। रोजगार का भी कोई साधन नही है। बन्दरों . गुलदार व सूअरों के आंतक से खेती-बाड़ी सब चौपट है।
नित्यानन्द पन्त का कहना है कि हमारी आंखें सड़क देखने के लिए पथरा गईं हैं। अब तो उम्र के इस पड़ाव में गांव में रहना भी मुश्किल है। हैरानी की बात तो यह है कि पैराड़ गांव से कोइराली गांव तक मात्र चार किलोमीटर सड़क मार्ग का निर्माण होना है। गांव की सड़क मार्ग से सम्बद्दता न होने से स्थित यह है कि मकान होने के बावजूद भी यह लोग गांव छोड़ने को मजबूर हैं। आजादी के जब पचहत्तर वर्ष बाद भी इस गांव में सड़क नहीं पहुंच सकी है तब अब क्या उम्मीद करेंगे । पूरा गांव पलायन की मार झेल रहा है। रोजगार व सड़क न होने से युवाओं ने गांव से पलायन कर लिया है। कोई सुविधा यहां नहीं है।सरकार का ध्यान भी इस गांव की ओर कतई नहीं है। गांव के लोगों का कहना कि हमें यह लग रहा है कि आज भी हम गुलाम हैं। विकास के लिए गांवों को सड़क से जोड़ने के बढ़-चढ़कर दावे किये जाते हैं, लेकिन उक्त गांव में आजादी के इतने वर्षों बाद भी सड़क न होना यहां के लोगों के लिए एक अभिशाप है।